देश को आज़ाद हुए 66 साल हो गए, तब भी गरीबी हटाना एक चुनौती थी और आज भी है। तब से ले कर आज तक हमारे नेता बदलते गए लेकिन अगर कुछ नहीं बदला तो वो है उनके पीढ़िगत चुनावी वादे। वही वादे हमारे बाप दादा भी सुनते थे और आज हम भी सुनते हैं। देश का बंटवारा हुआ तब भी दंगे होते थे और आज भी होते हैं। तब भी धर्म के नाम पर खून बहते थे आज भी बहते हैं। सवाल ये है कि इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है, ये नेता या हम? क्या हमें आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए? हम विकास की बात करते हैं, अपने-अपने विकास के मॉडल को प्रस्तुत करते हैं, लेकिन ऐसा क्या हो जाता है कि जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आता जाता है चुनाव के मुद्दे भी बदलते जाते हैं? फिर से हम अपने दादा जी की कहानी के यादों में चले जाते हैं।
अगर मैं सिनेमा का उदहारण दूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आपने अक्सर सुना होगा फ़िल्म निर्माताओं को कहते हुए की हम ऐसी फिल्में बनाते हैं जो पब्लिक देखना चाहती है। ठीक वैसे ही नेता हर चुनाव में वही मुद्दे बेचते हैं जिसे जनता पसंद करती है। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि जो भी मुद्दे बनते हैं उसके लिए हम सीधे तौर पे ज़िम्मेदार हैं। हमें आज़ादी तो मिल गयी लेकिन आज़ादी में जीना नहीं आया, पहले पूरी तरह से ग़ुलाम थे आज मानसिक रूप से ग़ुलाम हैं। अगर हम ऐसे लोगों को नकारना शुरू कर दें तो उनके बीच में कुछ अच्छा करने की प्रतियोगिता होगी जिसका सीधा फायदा जनता को होगा। आम आदमी पार्टी की बात मुझे अभी तक अच्छी लगी की उनका उम्मीदवार जनता चुन रही है या जनता के प्रति जवाबदेह होगी, अगर आगे भी वो ऐसे रहे और जनता उनका समर्थन करती है तो निश्चित रूप से ये हमारे देश के लिए एक मील का पत्थर होगी। मैं उनकी पार्टी का समर्थक नहीं लेकिन इस कदम का समर्थक ज़रूर हूँ। अगर ऐसा हुआ तो दूसरी पार्टी के लोग भी परंपरागत राजनीति से हट के इस तरह के रास्ते पे चलने को मजबूर होंगे। जनता को किसी भी अच्छे कदम को दिल खोल के समर्थन करना चाहिए चाहे वो किसी भी पार्टी का हो, धीरे-धीरे ऐसा करने से राजनीति में सुधार आ सकता है। हम अपने मसीहा खुद हैं, किसी दूसरे को हमारी किस्मत बदलने का मौका नहीं देना चाहिए। वक़्त आ गया है कि अब हम अपने नेताओं कि सोच से आगे बढ़ें और ये कहें:
हमारे चेहरे में हिन्दू, सिख, इसाई और मुसलमान ना देखो, इनमें सिर्फ और सिर्फ एक हिंदुस्तान देखो।
जय हिन्द !!!
अगर मैं सिनेमा का उदहारण दूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आपने अक्सर सुना होगा फ़िल्म निर्माताओं को कहते हुए की हम ऐसी फिल्में बनाते हैं जो पब्लिक देखना चाहती है। ठीक वैसे ही नेता हर चुनाव में वही मुद्दे बेचते हैं जिसे जनता पसंद करती है। मेरे कहने का तात्पर्य ये है कि जो भी मुद्दे बनते हैं उसके लिए हम सीधे तौर पे ज़िम्मेदार हैं। हमें आज़ादी तो मिल गयी लेकिन आज़ादी में जीना नहीं आया, पहले पूरी तरह से ग़ुलाम थे आज मानसिक रूप से ग़ुलाम हैं। अगर हम ऐसे लोगों को नकारना शुरू कर दें तो उनके बीच में कुछ अच्छा करने की प्रतियोगिता होगी जिसका सीधा फायदा जनता को होगा। आम आदमी पार्टी की बात मुझे अभी तक अच्छी लगी की उनका उम्मीदवार जनता चुन रही है या जनता के प्रति जवाबदेह होगी, अगर आगे भी वो ऐसे रहे और जनता उनका समर्थन करती है तो निश्चित रूप से ये हमारे देश के लिए एक मील का पत्थर होगी। मैं उनकी पार्टी का समर्थक नहीं लेकिन इस कदम का समर्थक ज़रूर हूँ। अगर ऐसा हुआ तो दूसरी पार्टी के लोग भी परंपरागत राजनीति से हट के इस तरह के रास्ते पे चलने को मजबूर होंगे। जनता को किसी भी अच्छे कदम को दिल खोल के समर्थन करना चाहिए चाहे वो किसी भी पार्टी का हो, धीरे-धीरे ऐसा करने से राजनीति में सुधार आ सकता है। हम अपने मसीहा खुद हैं, किसी दूसरे को हमारी किस्मत बदलने का मौका नहीं देना चाहिए। वक़्त आ गया है कि अब हम अपने नेताओं कि सोच से आगे बढ़ें और ये कहें:
हमारे चेहरे में हिन्दू, सिख, इसाई और मुसलमान ना देखो, इनमें सिर्फ और सिर्फ एक हिंदुस्तान देखो।
जय हिन्द !!!